Monday 13 April 2020

कुछ अधपका सा -२

अच्छा तो इस बार यूं हुआ कि हो ही गई बहस दोनों में,
कई दिनों से जो एक दूसरे को बोलना चाह रहे थे, इस बार बोल के खत्म ही कर दिए।
अब भला वो ठहरी अंतर्मुखी, मैं अगर चार बार हाल चाल ना पूछूं तो खुद से बयां नहीं कर पाती थी।
मियां हम भी एक बार नहीं, दो बार नहीं हजार मर्तबा पूछते रहते थे।
लेकिन अब तेवर बदल चुके थे, माहौल का रुख आस पास के लोगों ने बिगाड़ दिया था।
बात अब दिल की जगह सामने वाले के दिमाग पे वार करने लगी थी। अच्छा हम तो रहे गुनाहों का देवता पढ़ने वाले, वीर जारा जैसी फिल्में देख के त्याग वाला प्रेम सीखने वाले ।
भला इस प्रेम को तो त्याग से ही दर्शाया जा सकता है, अब कहां हम हसी टिठोली करके मन बहलाने वाले व्यक्ति बने।
त्याग करते गए जाने अनजाने कहा सुनी हो गई इतनी की बात अब आख़िरी शब्दो तक आ पहुंची।
मुझे तो अपने भोलेनाथ पे गुस्सा आया कि अपनी पार्वती और सती के लिए तो क्या क्या नहीं कर दिया, मेरी बारी आयी तो उसको पूर्ण विराम दे दिया!
फिर अचानक से मेरा दिमाग ठनका की इस प्रेम कि पराकाष्ठा को समझाने से अच्छा है, की अब जब सामने वाले ने ठान ही लिया है कि उसको इस प्रेम पाश में बधना ही नहीं है।
और ये तो कलियुग है यहां प्रेम की पवित्रता कहां सफल हुई है, फिर खूब बुरा भला बोल के हमने भी दर्शा दिया कि कुछ है ही नहीं, ढोंगी और निर्दयी बातों से सारा भविष्य बदल दिया।
इस प्रकार से यह तो तय हो गया कि अब सामने से कोई संपर्क नहीं होगा।
मैं भी अब निश्चिंत हो गया कि अब मेरा प्रेम उसकी पवित्रता पे सवाल नहीं होंगे, जिसको जो चाहिए था उसको वो मिल चुका था उसे ना समझने की जिद थी, और मुझे उसको ही समझाने का हौसला। दोनों जीत गए किसी को मिला कुछ नहीं लेकिन।
तभी ज़िन्दगी ने मार दी करवट अब रास्ते अलग हैं उसकी कोई खबर लेने की कोशिश नहीं करता मैं इस भरोसे में की मेरा प्रेम उसको सलामत ही रखेगा और मैं अपना प्रेम और उसकी पवित्रता को पूरे सम्मान के साथ मन कि तिजोरी में रख कर देश की सेवा में सलंग्न होने लगा।